Saturday, March 27, 2010

ब्लाग जगत से अधिक उम्मीदें न रखें ! - सतीश सक्सेना

अलका जी !
सरवत जमाल को दोस्त ही नहीं बनाता तो अच्छा था कम से कम यह तकलीफ तो नहीं होती , निर्मला कपिला जी की बात समझ आयेगी या नहीं मैं नहीं जानता, मगर उन्हें यह जरूर बतलाइयेगा कि इस ब्लाग जगत में लोगों को बहुत याद रखने की आदत नहीं है  ! कुछ दिनों में यह सरवत जमाल को भूल जायेंगे मगर निर्मला जी जैसे अथवा उनके कुछ नालायक लोग ( मेरे जैसे ) दर्द के साथ याद रखेंगे कि नाहक एक बेहद संवेदनशील दोस्त बनाया, जो हमें भी तकलीफ देकर चला गया ! 

अपने प्यारों के बीच संवेदनशीलता अच्छा गुण है ! रास्ता चलते लोगों से अपनी संवेदनशीलता की क़द्र करवाने की इच्छा करके सिर्फ अपने दोस्तों को दुखी करना भर होता है, और हमारे हुजूर दोस्त तो शायर हैं , अगर रास्ता चलते लोगों की बेहूदगियों की शिकायत करनी है तो शेरों में जगह  दें जिससे दुनिया की आँखें खुलें ! किससे उम्मीदें कर रहे हैं यहाँ ... ??

साहिल के तमाशाई , हर डूबने वाले पर  ,
अफ़सोस तो करते हैं इमदाद नहीं करते !

दुखी होकर, ग़ज़ल लेखन रोक कर, आप सिर्फ एक घटिया मानसिकता का मकसद कामयाब कर रहे हैं  भाई जी !
इंतज़ार में, आपका 

Saturday, March 20, 2010

किसी नारी के संग सिनेमा जाने का दिल करता है !

अपने किशोरावस्था के दिनों की यादें,  बरसों पहले लिखी इस हास्य रचना के जरिये ताजा हो  जाती हैं , आपको मुस्कराने हेतु नज़र है !


सोचता था बचपन से यार
बड़ा कर दे जल्दी भगवान
मगर अब बीत गए दस साल
जवानी बीती जाये यार ,
किसी नारी के संग ,सिनेमा जाने का दिल करता है !

क्लास में छिप छिप के मुस्कायं
फब्तियां करती दिल में चोट
अकेले में जब करते बात
पैर की जूती लेँ निकाल
किसी बगिया में इनके साथ ,घूमने का दिल करता है !

दूर ही बैठे है दिल थाम ,
आह भरते रहते मन मार
देख कर मेरी भोली शक्ल
तुम्हारा मुहं हो जाता लाल
क्रोध में जलती आँखें देख, दंडवत का दिल करता है !

अचानक दिल में उठी हिलोर
बुलाया तुमने आख़िर मोय
लगाकर इत्र फुलेल तमाम
सोंचता प्रिया मिलन की बात
देख प्रिंसिपल तेरे साथ, भागने का दिल करता है !

प्यार से पत्र लिखा तुमको
लिफाफा पोस्ट किया तुमको
एक दिन बापस लौटा घर
घर में तुम बैठी मम्मी पास
अरे फट जाये धरती आज, समाने का दिल करता है

Tuesday, March 9, 2010

हम महिला विषयों पर न लिखें ? - सतीश सक्सेना



डॉ अरविन्द मिश्रा का एक चुभता हुआ कमेंट्स मेरा ध्यान उनकी ओर खींच ले गया है  " चलिए आप उदासीन और तटस्थ रहकर इसी तरह बीच बीच में आकर अपनी घोर चिंता व्यक्त करते रहा करिए -ब्लागजगत का जो होना है वह तो हो ही जाएगा "   


और मुझे लगा कि जैसे अरविन्द मिश्रा ने मुझसे कोई बहुत गहरी और सच्ची शिकायत की हो कि आप सोते हुए ही जागते रहो का नारा लगाते रहो ! और मैं तिलमिलाते हुए नींद से उठ गया !


अभी हाल में मिथिलेश दुबे  ने एक लेख लिख कर लगता है गज़ब ही कर दिया ! मैं कभी समझ नहीं पाऊंगा कि नारी विषय पर लिखने का अधिकार केवल कुछ महिलाओं का ही होना चाहिए ? किसी अन्य के लिखने पर जैसा यहाँ विरोध होता है, उससे तो ऐसा ही लगता है ! 


अजीब  हास्यास्पद कल्पना है कि नारी पर पुरुष लिखे तो पित्रवादी सत्ता लिखवा रही है ,मिथिलेश जैसा १९ वर्षीय विलक्षण लेख़क लिखे तो भी बवाल  ! मिथिलेश को कोई हक़ नहीं कि वह अपने पारिवारिक संस्कारों   के हिसाब से अपनी बहिन को कोई हिदायत दे सके अथवा अपनी माँ को कोई समर्थन दे ! 


मेरी जिन महिलाओं से बात हुई  वे खुद इस बात को मानती हैं कि कुछ लोग अपना नाम कमाने के लिए दूसरों को फ़ोन करके प्रति कमेंट्स करने के लिए उकसाते हैं , और अधिकतर महिलाएं यह न चाहते हुए  भी  विरोध नहीं कर पातीं ! 


महिलाओं पर न लिखने का अर्थ, स्नेह पर ना लिखना , प्यार पर न लिखना , जीवन पर न लिखना , ममता पर न लिखना ही है ! हमारे जीवन में बचेगा ही क्या अगर महिला वहाँ से हटा ली जाये ! मेरा महिला लेखकों से अनुरोध है कि वे खुले मन से विचार करें !   


क्या शिकवा है क्या हुआ तुम्हे 
क्यों आँख पे पट्टी बाँध रखी,
क्यों नफरत लेकर, तुम दिल में 
रिश्ते, परिभाषित करती हो,
हम पुरूष ह्रदय, सम्मान सहित, कुछ याद दिलाने बैठे हैं!