Wednesday, April 23, 2014

काश उत्तराखंड की साजन,तुमको टिकट मिल गयी होती -सतीश सक्सेना

एक खतरनाक सा सपना,जो आज रात देखा , ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया  : यह रचना व्यंग्य नहीं है केवल हास्य है , अधिक समझदार लोग, अधिक अर्थ न तलाश करें...


बरसों बीते साथ तुम्हारे ,
खर्राटों में , सोते, जगते !
मोटी तोंद , पसीना टपके ,
भाग्य कोसते,पंखा झलते
पता नहीं,फूटी किस्मत पर, प्रभु तेरी कुछ , दया न होती !
कितनों के पति,बहे बाढ़ में,मैं भी तो, खुशकिस्मत होती !

सासू  लेकर, चारधाम  की 
यात्रा तुमको, याद न आई  !
कितने लोग तर गए जाकर
क्यों भोले की, याद न आई !  
काश उत्तराखंड की साजन,तुमको टिकट मिल गयी होती !
नमःशिवाय, उच्चारण करते, मैं भी धन्य, हो गयी होती  !

नाइन इलेवन के दिन भी तो 
होटल से बाहर, निकले  थे  !
उस दिन तुम न्यूयार्क में थे  , 
पर डब्लू टी सी, नहीं चढ़े थे ?
काश तुम्हारी थुलथुल काया, काम कहीं तो,आई होती  !
आज तलक मैं ,रोज़ फूल की माला,तुम्हे चढ़ाती होती !

जिसदिन सूनामी आई थी 
तब तुम बाहर नहीं गए थे 
कितने लोग मरे थे बाहर 
तुम खर्राटों  में, सोये थे  !  
काश सुनामी में ,यह बॉडी, लहर में गोते, लेती होती  !
शोक संदेशा,आस लगाए,मैं भी खूब,बिलखती  होती ! 

कितने साल , बिताए हमने    
खर्राटों  और  पुर्र -पुर्र  में  !
प्रियतम बचे,विसर्जित होते 
मोटरबोट की , घुर्र -घुर्र  में  !
फिसल के डूबे होते, उसदिन ,अगर नदी इठलाती होती !
कसम तुम्हारी मैं जीवन भर, गंगा के, गुन गाती होती !

कबतक करवा चौथ रखूंगी 
सजधज कर, गौरी पूजूँगी ,
सास के पैर, पति की पूजा 
कब तक मैं,इनको झेलूंगी 
कब से जलती, आग ह्रदय में ,कभी तो छाती ठंडी होती !
सनम जल गए होते,उस दिन ,काश दिए में, बत्ती होती !

अब तो जाओ,जान छोड़कर
कब तक भार उठाये, धरती 
फंड, पेंशन, एफडी, लॉकर ,
बाद में लेकर मैं क्या करती 
अगर मर गए, होते अब तक,साजन रोज आरती होती !
कसम नाथ की,मैं जीवन भर,तुम्हे याद कर रोती होती !

( कृपया इसमें गंभीरता न खोजें न अन्यथा अर्थ लगायें , यह व्यंग्य नहीं है विशुद्ध हास्य है इसे उसी स्वरुप में पढ़ें !  जिन्हें हंसना नहीं आता, वे क्षमा करें  )

3 comments:

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